आहट-9
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संशय
लोकेश के नहीं आने की ख़बर से अजय थोड़ा उदास हुआ । लेकिन जल्द ही वह त्यौहार की ख़ुशी में रम गया। एक -एक दिन त्यौहार की ख़ुशियों में बीत रहे थे, धनतेरस, नरक चौदस , सूरत्ति (लक्ष्मी पूजा-गौरी गौरा स्थापना) , गोवर्धन पूजा , फिर भाई दूज सब त्यौहार हँसी-ख़ुशी बीत गया। इस बीच अजय आशंकित रहता कि कोई न कोई बहाने से अनिल बँटवारे की बात न छेड़ दे। अनुभूति भी विशाखा के मन से कूछ नहीं निकलवा पाईं।
बच्चे गाँव में अभी और रहना चाहते थे। अनल भैया और माँ भी ज़िद कर रही थी , कम से कम जेठऊनी तक तो रुक जायें। त्यौहार की व्यस्तता की वजह से मिलबैठकर बात ही नहीं हुई है। अनिल ने बच्चों की पढ़ाई की वजह से रुकने से साफ़ मना कर दिया। मगर अनुभूति अभी कुछ दिन और रुकना चाहती थी।
अजय तो अनिल से खुलकर बात करना चाहता था। लोकेश भी त्यौहार के दिन आकर ई-मेल की बातों को सही बताते हुए कहा कि अनिल ख़ुद ही आपसे बात करने की भी बात कही है । लेकिन अजय इंतज़ार नहीं करना चाहता था वह सोच रहा था आए के आए ये सब सुलझ जाए तो अच्छा है। लेकिन ऐसा कोई अवसर ही नहीं मिला ।
फिर वह दिन आ गया। अनिल के लौटने के एक दिन पहले रोज़ की तरह अजय सुबह-सुबह नहर किनारे उगी नरम-नरम घास पर नंगे पैर टहल रहा था। धूप धीरे-धीरे फिसलते हुए सब कुछ अपने आग़ोश मे लेने आतुर दिख रहा था । दूर खेतों में ददरिया गाती महिलाएँ धान कटाई करने में लगी थी। अस्पष्ट आवाज़ के बाद भी अजय उनके साथ धीरे-धीरे स्वर में ददरिया गाने लगा था । पास ही महुआ के पेड़ में गिलहरी उछल-कूद मचा रही थी। अचानक अनिल को आता देख अजय के क़दम धीमें हो गए।
पास आते ही अजय कुछ कहता इससे पहले अनिल ने कहना शुरू कर दिया कि अजय भैया! कल हम लोग वापस चले जाएँगे । आप तो अभी रहेंगे। रुकने की मेरी भी इच्छा है मगर क्या करूँ बच्चों की पढ़ाई भी ज़रूरी है । मैं चाहता हुँ कि दिल्ली लौटने से पहले एक-दो दिन हमारे घर भी रुकें, कुछ बात भी करनी है और बात वहीं हो पाएगी यहाँ गाँव में बात करना उचित नहीं है , इसलिए आप ज़रूर आयें हम लोगों को अच्छा लगेगा।यह कहते हुए बग़ैर अजय के जवाब के वह आगे बढ़ गया। अजय उसे देखते रहा, उसे लगा अनिल उससे दूर , बहुत दूर चला जा रहा है और वह उसे रोकने में असमर्थ सिर्फ़ जाते हुए देखता रहा।
उसके जाने के बहुत देर बाद तक अजय खेतों की मेड़ों पर इधर-उधर टहलता रहा । उसका मन आज कहीं नहीं लग रहा था । उसे अनिल से सीधे बात नहीं कर पाने को लेकर स्वयं पर ग़ुस्सा आ रहा था ।
अजय सिर्फ़ यही सोचता रहा कि आख़िर अनिल बँटवारे की बात यहाँ क्यों नहीं करना चाहता । अपने घर बुलाकर वह क्या दिखाना चाहता है, क्या यहाँ वह माँ के डर से चुप है । नहीं-नहीं! कोई और बात होगी? मन व्याकुल होने लगा , इधर उधर वह चला जा रहा था। सूर्य का वेग लगातार बढ़ रहा था लेकिन अजय को इन सब का होश कहाँ। वह तो बच्चे बुलाने आ गए नहीं तो अजय पता नहीं और कितनी देर तक संशय में भटकता होता।
रास्ते भर बच्चे धमाल मचाते रहे और अजय उन्हें इधर नहीं उधर नहीं कहकर टोकता रहा । अनिल का बेटा कुछ ज़्यादा ही शैतानी कर रहा था । वह जानबूझकर गिरने का नाटक करता । उठाने पर लिपट जाता । थोड़ी देर मेन अजय भी बच्चों के साथ बच्चा बन चुका था। उसे भी मज़ा आ रहा था । कोई नहीं कहता कि थोड़ी देर पहले अजय बेहद तनाव मे था।
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