आहट-8

7
महक 
अजय ने कभी सोचा नहीं था कि उनके परिवार मे बँटवारे को लेकर कभी इस तरह उथल-पुथल होगी । बड़े भैया ने परिवार की ख़ुशी के लिए क्या कुछ नहीं किया । गाँव संभालने के लिए उन्होंने माँ-बाप के कहने से अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी। गाँव के इस होनहार और सबसे होशियार बालक की पढ़ाई छोड़ने पर मास्टर जी कितना झल्लाए थे। अनल का जीवन बर्बाद करने तक का आरोप मास्टर ने जड़ दिया था।
यदि कोई उससे कोई सवाल करता तो वह बँटवारे पर कभी राज़ी नहीं होता। क्योंकि वह अच्छी तरह जानता है कि बँटवारे का अर्थ सिर्फ़ ज़मीन का टुकड़ा होना नहीं है। सब कूछ टूट जाता है। बिखर जाना है। सब अपने हिस्से का जीवन जीने लगेंगे और फिर गाँव कोई नहीं जाएगा। आँगन में दीवार खींच जायेंगी। सबके अपने हिस्से का त्यौहार हो जाएगा। ख़ुशी दुःख सब अपने हिस्से के हो जायेंगे।
माँ को जब इसका पता चलेगा तो क्या वह सहन कर पायेंगी। जीते जी मर नहीं जाएगी । उसे याद है एक बार धान की मिंजाईं के समय बियारा मे अनल ने धान का तीन कुढ़ी रखते हुए मज़ाक़ में कह दिया कि ये तीन हिस्सा हम तीन भाईयों का है । तब माँ कितनी आग-बबूला हुई थी, वह उस शाम खाना तक नहीं खाई और फिर कितने दिनो तक माँ हँसी नहीं थी, बड़ी मुश्किल से संभल पाई थी माँ।
अजय हर हाल में बँटवारे को टालना चाहता था। और यही सोचते वे गाँव पहुँच गए। सूर्यनारायण पुरे वेग मेन था , मगर हवा में शीतलता थी । घर के बाहर ही बच्चे धमा-चौकड़ी मचा रहे थे। अनिल भी बच्चों मेन शामिल था। कार रुकने की आवाज़ सुन सभी का ध्यान कार की ओर गया और उन्हें देखते ही हल्ला मचाते सब दौड़े , अनिल सहित सभी बच्चे टप-टप करके पैर छूने लगे। बच्चों ने आ गए का हल्ला मचाना शुरू कर दिया।
घर के दरवाज़े में घुसते ही माँ आ गई, उनकी आँखो में ख़ुशी तैर रही थी। माँ का पैर छूकर आशीर्वाद लेना कितना सुखद होता है। तभी बच्चे क्या लाए हो , का हल्ला मचाने लगे तो माँ ने ज़ोर से डाँटते हुए कहा- भगो यहाँ से इतनी दूर  से आयें है, थोड़ा चैन से बैठने दो। माँ की डाँट सुन बच्चे आँगन में खेलने लगे। अनिल सब सामान ख़ुद ही उठा उठाकर भीतर ले गया।
खाना खाकर वे बैठे ही थे कि बच्चे फिर जमा हो गए। सूटकेस खोलकर बच्चों को पहले उनका सामान दिया गया फिर उसने बाक़ी लोगों के लिए लाए कपड़े निकाल कर दिए तो बड़े भैया अपनी आदत के अनुरूप झिड़के कि इतना ख़र्च करने की क्या ज़रूरत तो माँ ने हँसते हुए कहा क्यों ज़रूरत नहीं है , बारह माह का त्यौहार है।
अजय अब तक अनिल की तरफ़ कई बार देख चुका था। मगर उसे कहीं से भी नहीं लगा कि अनिल बँटवारे के लिए हंगामा कर सकता है। अनिल सामान्य रूप से ही पेश आ रहा था और शाम होते-होते जब घर की महिलाएँ रंगोली बनाने में लग गई , तब वह दूर से विशाखा की हरकतों को भी पढ़ने की कोशिश करने लगा लेकिन वह भी सबके साथ हँसी-ख़ुशी रंगोली बनाने में ही व्यस्त दिखी। कहीं कोई असामान्य न देख अजय घुमने निकल गया ।
अजय जल्द से जल्द लोकेश से मिलना चाहता था, इसलिए वह सीधे उसी के घर पहुँचा , गौरा चौरा के पास बच्चे खेल रहे थे, गौरी-गौरा की तैयारी में चौरा को सजाया जा चुका था, कुछ लड़कियाँ अभी भी एक पतरी रैनी-बैनी गुनगुना रही थी । गाँव बदलने लगा था, कच्चे छानी वाले कुछ मकान पक्के बन गए थे, घर की देहरी पर दिया जलाना शुरू हो गया था , लेकिन लाइटों की रंग-बिरंगी झालर ने दीया की रोशनी को लील लिया था। अजय सोच रहा था, आदमी कितनी भी तरक़्क़ी कर ले, आकाश को मुट्ठी में करने का दावा कर ले , सब तरफ़ आधुनिकता की चादर बिछा ले , मगर सुकून तो माटी का यह दीया ही देता है।
अभी वह थोड़ी दूर ही गया था कि बिजली गुल हो गई लेकिन घर-घर देहरी में जल रहे दीया ने अंधेरे को हावी नहीं होने दिया । उसे लगा वह फिर से अपने पुराने गाँव में आ गया है , जहाँ बिजली नहीं थी और अंधेरे पर विजय के लिए मनाने वाला यह पर्व अपनी सार्थकता को पूरा करता था। अंधेरे को चिरती , देहरी पर जल रहे दीया की रोशनी की ताक़त को देखने का इससे अच्छा अवसर कहाँ मिलेगा। उसे मिट्टी के दीये का यह रूप बचपन से ही पसंद था। वह बचपने में कुम्हारो की बस्तियों में अक्सर चला जाता था । माटी के ढेले को हाथ में उठाता और चिल्लाता, देखो मेरे हाथ में पूरी धरती आ गई है, वह मिट्टी से खेलने में इतना मगन हो जाता कि उसे ध्यान ही नहीं रहता कि वह और उसके कपड़े मिट्टी से सन गए हैं। घर आकर डाँट पड़ती तो रो देता और कहता यही तो मिट्टी है जो हमेशा जीवित रहती है । सभ्यताएँ नष्ट हो जाती है , युग बीत जातें हैं , मिट्टी टूट-फूट कर भी जीवित रहती है। इसे कोई नहीं मार सकता। यह नश्वर है, यही ईश्वर है । अजय ने देखा देहरी -देहरी में जल रहे दीया कैसे अंधेरे को चीर कर उसकी राह आसान कर दे रहा है , शहर होता तो ऐसे अंधेरे मे एक जगह खड़ा हो जाना पड़ता।
वह बढ़ता जा रहा था, लोकेश के घर की तरफ़ । रास्ते में पंचू, दशरथ, नहरू, सहित उसके साथ पढ़ने खेलने वाले मिले। कितनी आत्मीयता है सबमे । घर चलने की ज़िद को वह बाद में आने कहकर टाल गया । मनीराम अपने घर के चौरा में बैठा था , हालचाल पुछने के बहाने थोड़ी देर बैठा ही लिया। तब गाँव का हालचाल जान अच्छा लगा ।

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