आहट-7
गाँव
कई बार अनुभूति पुछ चुकी थी कि गाँव कब चलना है। दीपावली को हफ़्ता भर रह गया था । बच्चे भी गाँव जा चुके थे। परंतु अजय कुछ ज़रूरी काम का बहाना करता रहा। अजय का इस बार पहले से गाँव जाने का मन नहीं कर रहा था। वह नहीं चाहता था कि त्यौहार के पहले बँटवारे की बात हो और त्यौहार का मज़ा ख़राब हो , इसलिए वह त्यौहार के एक दिन पहले या धनतेरस के दिन पहुँचने का मन बना रहा था।
रात को जब अनुभूति ने बताया कि बच्चों का फ़ोन आया था । कह रहे थे मज़ा आ रहा है, और पुछ रहे थे कब आ रहे हैं, तो अजय ने कल ही चलने की बात कह तो दी लेकिन वहाँ की परिस्थितियों को लेकर आशंकित भी हुआ।
अजय की हामी से अनुभूति के ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा , उसने सुबह घर का काम जल्दी निपटाने की बात कहते हुए लाईट बंद कर दी ।
कमरे में अंधेरा पसर चुका था लेकिन अजय की आँखों में नींद नहीं। वह जितना गाँव के बारे में सोचता बेचैन हो जाता।
वह अपना ध्यान धनतेरस या गौरी-गौरा मनाने की ओर लगाता और कुछ ही पल में बँटवारे तक पहुँच जाता। उसे याद है कि किस तरह गाँव में त्यौहार को लेकर बच्चे-बूढ़ों में उत्साह रहता है। कैसे गाँव का हर आदमी राउत नाचा में शामिल हो जाता है।राउतो से ज़्यादा दूसरों की संख्या होती है।
गौरी-गौरा में कलशा परघाने वाली महिलाएँ किस तरह से घर के एक एक लोगों का नाम ले लेकर भड़भड़ाती हैं। हालाँकि जब से गाँव मे बिजली आई है , तब से त्यौहार मनाने का मज़ा कम हुआ है, मगर उसे याद है कि जब गाँव में बिजली नहीं पहुँची थी तब कलशा परघा कर जब महिलाएँ गौरी -गौरा के लिए लाईन से निकलती थी , तब कलश की ज्योति को देखना कितना सुखद लगता है। अमावस्या की काली रात और घुप्प अंधेरे में कलश की क़तार में जलते दीप का आनंद आज भले ही पीछे छूट गया है , मगर उसकी याद अब भी ज़ेहन में है।
फिर सुबह गौरी-गौरा का विसर्जन के बाद घर-घर गौ वंश को खिचड़ी खिलाने की परंपरा उसे हमेशा आनंदित करता है। खाट में केले का पत्ता डालकर उसके ऊपर खिचड़ी रखा जाता फिर गौवंश खिचड़ी पर टूट पड़ते। उन्ही में से प्रसाद खाना फिर उनका मुँह धुलाना कितना सुखद था।
शाम को देहियान मे गोवर्धन पूजा के लिए पूरा गाँव उमड़ पड़ता है , फिर एक दूसरे को गोबर का तिलक लगाकर बधाई देने का चलन छोटे बड़े का भेद तो मिटाता ही है त्यौहार का उत्साह भी बढ़ाता है । राउतो की टोली देखकर सुआ नाचने वालियों का छुपना तक ज़ेहन में है , उसे याद है कि उसके घर के आँगन में सुआ नाच चल रहा था , तभी अचानक राउतो की टोली भी आ गया , फिर उन्हें देख महिलाएँ किनारे होने लगी , अपनी टोकरी जिसमें मिट्टी का सुआ पकड़ी थी , उसे छुपाने लगी । तब तक राउतो की लाठी टोकरी पर पड़ चुकी थी । जैसे तैसे टोकरी लेकर भागना पड़ा था । उस दिन राउतो की लाठी ने कई घरों के छप्परों पर लाठी बरसाये थे ।
दीपावली में ज़मीन-चकरी को पैर से मारना, छुरछुरी को जलाकर आकाश की ओर फेंकना या किसी पेड़ मे जलती छुरछुरी को फँसाने की कोशिश करने का अलग ही मज़ा था। लाल दनाका को हाथ में जलाकर फेंकना तो बच्चों के लिए बहादुरी का सबब होता था।
कितनी ही बातें ज़ेहन में है, बैसाखिन डोकरी पर गौरी-गौरा चढ़ना, और फिर सुकालू बैगा का उसे हूम जग देकर ठीक करना , उसे ख़ास तौर पर पसंद था । वही गोटनिया का नाचा तक याद है।
भैंसों के पीठ पर बैठ कर ददरिया गाना तो उनके बच्चों को भी पसंद है, यही वजह है कि बच्चे छुट्टी लगते ही गाँव जाने की ज़िद करते हैं। पीपल की डाल पर चढ़कर बड़े तालाब मे कूद-कूद कर नहाना तो आज भी पसंद है, भले ही लोग उसके इस बचपना पर हँसते हैं। मगर अजय को परवाह नहीं।
यादों को संजोते संजोते अजय का मन गाँव जाने के लिए अकुलाने लगा। उसने घर के हर सदस्य के लिए कुछ न कुछ सामान पहले ही ख़रीद लिया था । उसकी तीव्र इच्छा हो रही थी कि जल्दी से जल्दी गाँव पहुँच जायें।
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