आहट -2

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उलझन
अपने कमरे में टहलते अजय को कुछ नहीं सूझ रहा था । उसे तो हर हाल में यह समस्या हल करनी थी । वह जानता था, सब कुछ बदल चुका है । आस-पास के माहौल से परिवार की परंपरा को बचा पाना कठिन हो गया है। नई पीढ़ी की सोच बदल चुकी है। स्वार्थ और लोभ ने रिश्ते की संवेदनाओं को तहस-नहस कर दिया है। आधुनिकता की चकाचौंध से भगवान भी नहीं बच सके हैं, फिर पारिवारिक परंपरा को बचाना आसान नहीं है ।
तभी पत्नी अनुभूति ने नाश्ते के लिए आवाज़ लगाई, अजय नाश्ते के टेबल तक आ गया, बैठ गया। आज नाश्ते में अनुभूति ने फरा बनाया था। दूसरा मौक़ा होता तो अजय फरा पर टूट पड़ता लेकिन, आज तो वह कहीं और ही खो गया था। वह नाश्ता ज़रूर कर रहा था, लेकिन उसका पूरा ध्यान परिवार की परंपरा बचाने की क़वायद में ही उलझ कर रह गया था। उसने इस उलझन को सुलझाने की हर संभव उपाय सोचा , परंतु उलझन , सुलझने की बजाय इसके परिणाम उसे और अधिक बेचैन कर देता था। बीच-बीच में अनुभूति कुछ पूछ लेती तो अजय उसका जवाब भी दे देता परंतु उसका मन तो कहीं और था। वह अब तक यह भी तय नहीं कर पाया था कि इस समस्या पर वह अनुभूति से चर्चा करें या न करें।
आज तक पूरे घर-परिवार में अजय की बात ही सुनी जाती थी, उसके फ़ैसले पर किसी ने सवाल नहीं उठाए । अनुभूति तो कभी कुछ बोलती ही नहीं थी। हर निर्णय उसके लिए शिरोधार्य था। अप्रिय लगने वाले निर्णय पर भी अनुभूति ने कभी ज़ुबान नहीं खोली थी। फिर अजय आज क्यों इतनी बड़ी बात कहने से हिचक रहा था। अपनी बात कहे या न कहे , इसी अनिर्णय में नाश्ता भी पूरा हो गया।
नाश्ते के बाद जब अजय कुर्सी से उठने लगा तब अनुभूति ने पूछा था, आज कुछ परेशान दिख रहे हो। तब भी अजय ने परेशानी बताने की बजाय मुस्कुरा दिया था , परंतु अनुभूति से उसकी परेशानी छुप नहीं सकी थी। आख़िर तीस साल से वह अजय के साथ थी। हर उतार-चढ़ाव के दिनो में अनुभूति ने ही तो अजय का साथ दिया था। विवाह के दौरान दिए सात वचनो के साथ ही अनुभूति जी रही थी । जीवन संगिनी का कर्तव्य निभाने में उसने कोई कसर बाक़ी नहीं रखा था। इतने सालों में वह अजय की हर बात का मतलब जानने लगी थी। अजय की चाल-ढाल या दूसरी हरकत से जान जाती थी कि क्या कुछ चल रहा है। और वह आज भी यह जान गई थी कि अजय परेशान है और परेशानी की वजह कल आई एक ई-मेल है।
अनुभूति को याद है कल शाम चाय पीते समय मोबाईल में लोकेश के ई-मेल आने का मैसेज देखकर अजय मारे ख़ुशी के चिहुँक उठा था। वह बच्चों की तरह मारे ख़ुशी में मेल पढ़ने अपने कमरे की तरफ़ लपका था। अनुभूति ने कुछ पूछना चाहा तो अजय ने सिर्फ़ इतना कहा कि इस मेल का कब से इंतज़ार कर रहा था । इसके बाद अनुभूति अपने काम में व्यस्त हो गई थी।
अजय जल्दी-जल्दी कम्प्यूटर आन करने लगा। कम्प्यूटर अपने समय पर ही खुल रहा था, परंतु अजय को सब्र कहाँ था। उसे लग रहा था कि कम्प्यूटर ख़राब होने लगा है, वह झुँझला भी रहा था कि आख़िर यह जल्दी खुल क्यों नहीं रहा है। सामान्य दिनो में वह कम्प्यूटर आन कर की बोर्ड पर ऊँगली तभी चलाते थे , जब स्क्रीन भी पूरी तरह आन हो जाता था, परंतु आज हड़बड़ी में इंटर-स्पेस पर कई बार ऊँगली चला चुका था। मेल खोलने की हड़बड़ी साफ़ झलक रही थी।
इनबाक्स पर अभी भी सबसे ऊपर लोकेश का नाम था। अजय ने एक सेकेंड भी देर किए लोकेश को क्लिक किया और जल्दी-जल्दी मेल पढ़ने लगा। जैसे-जैसे वह आगे पढ़ रहा था , परेशानी और चिंता की लकीर अजय के माथे पर उभरने लगी । पूरा मेल पढ़ने के बाद अजय को गर्मी महसूस हुई । वह स्विच बोर्ड की तरफ़ लपका, पर पंखा तो चालू था और वह भी पूरी रफ़्तार से चल रहा था। वह पुनः धम्म से कुर्सी पर बैठ गया और मेल पढ़ने लगा। एक-दो-तीन..पता नहीं कितनी बार लोकेश के इस मेल को पढ़ा होगा। शाम से कब रात हुई , इसका पता तो तभी चला जब अनुभूति ने कमरे में आकर आवाज़ देते हुए कहा , खाना निकालूँ क्या ?
अजय बुरी तरह चौंका था। परंतु ख़ुद को सामान्य करते हुए अनुभूति से खाना निकालने कहते हुए वाँश रूम में चला गया। जब तक वह खाने के टेबल पर पहुँचता , टेबल सज चुका था। अनुभूति की अच्छी आदतों में यह आदत भी थी कि वह खाने का टेबल इस ढंग से रखती कि नहीं खाने वाले की भी खाने की इच्छा हो जाये । अजय को खाना खिलाकर ही वह खाती थी । खाने की ख़ुशबू में वह थोड़ी देर के लिए लोकेश का मेल वह भूल ही गया था लेकिन पेट भरते ही उसका मन फिर मेल पर ही चला गया । वह जल्दी से वॉश बेसिंन में हाथ धोकर वापस कम्प्यूटर के सामने बैठ गया और एक बार फिर मेल पर उसकी निगाह जम गई -
प्रिय दोस्त,
यहाँ सब कुशल मंगल है, तुम भी वहाँ कुशल होंगे। बहुत दिन हो गए तुमसे मुलाक़ात नहीं हुई। पिछली बार जब तुम दुर्ग आए थे , तब मैं नहीं था। इस बार गाँव आने का कार्यक्रम कब का है। पहले से बता देना। एक साथ गाँव में छुट्टी बिताएँगे। सोचा था मेल करने की बजाय मैं स्वयं दिल्ली आकर तुमसे चर्चा करूँगा। परंतु छुट्टी नहीं मिली । जानते हो निजी संस्थानो में नौकरी का मतलब अपना सब समय खपा देना होता है । न आफिस वालों को ख़ुश रखना आसान होता है और न ही घर वालों को ही ख़ुश रखना।
पिछले संडे को मैं गाँव गया था । ऊपर से तो सब ठीक दिख रहा है , परंतु भीतर में कुछ भी ठीक नहीं है । तुम्हारे सबसे छोटे भाई अनिल मुझे देखते ही घर ले गया । तुम्हारे अनल भैया घर पर नहीं थे । भाभी को दिखाने किसी डॉक्टर के पास दुर्ग गए थे ।
अनिल और उसकी पत्नी विशाखा ही घर पर थे । औपचारिक चर्चा के बाद अनिल ने जायदाद के बँटवारे की इच्छा जताई ही थी कि विशाखा भी चर्चा में कूद गई । विशाखा के तेवर सख़्त थे। वह चाहती है कि जायदाद में अनिल को हिस्सा दे दिया जाय। उनके भी दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, आख़िर इतनी जायदाद के रहते वह हर बात के लिए क्यों हाथ फैलाए। जायदाद मिलने पर कुछ करने की सोचा जा सकता है। परंतु बड़े भैया कुछ बोलते नहीं, और मँझले को मतलब नहीं है।
मैंने परिवार की परंपरा का उदाहरण देते हुए कहा भी कि इस परिवार में आज तक सम्पत्ति का बँटवारा नहीं हुआ है । पिता की मृत्यु के पश्चात बड़े बेटे को  सम्पत्ति के उपयोग का अधिकार है । वह चाहेंगे तभी मिलेगा।
इतना सुनते ही विशाखा फट पड़ी। और यहाँ तक कह दिया कि आजकल क़ानून जब लड़कियों तक को पारिवारिक सम्पत्तियों में हिस्सेदार मानता है तब भला कोई एक व्यक्ति को पूरी सम्पत्ति कैसे मिल सकता है । मँझले वाले भैया आपके दोस्त हैं , आप उन्हें समझाओ वे तैयार हो जाएँगे तो बड़े भैया की मनमानी नहीं चलेगी ।
अजय तुम्हें ही कुछ करना होगा । कोई रास्ता निकालो अन्यथा अनर्थ हो जाएगा । अनिल की पत्नी विशाखा जायदाद में हिस्से के लिए कुछ भी कर सकती है । हालाँकि अभी तक यह बात बड़े भैया अनल से नहीं कही गई है । इस बारे में में वे बड़ी भाभी से बात करने की सोच रहे हैं । मगर वे हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।
बाक़ी सब ठीक है।
तुम्हारा मित्र
लोकेश

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